ज़ब्त का अहद भी है शौक़ का पैमान भी है
अहद-ओ-पैमाँ से गुज़र जाने को जी चाहता है
दर्द इतना है कि हर रग में है महशर बरपा
और सकूँ ऐसा कि मर जाने को जी चाहता है
Gulzar
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शरह-ए-बेदर्दी-ए-हालात न होने पाई
मरसिए
अगस्त1955
किस शहर न शोहरा हुआ नादानी-ए-दिल का
ज़ेर-ए-लब है अभी तबस्सुम-ए-दोस्त
इक फ़ुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन
दिलदार देखना
आए कुछ अब्र कुछ शराब आए
बहार आई
ग़म-ब-दिल शुक्र-ब-लब मस्त ओ ग़ज़ल-ख़्वाँ चलिए
ग़म-ए-जहाँ हो रुख़-ए-यार हो कि दस्त-ए-अदू
दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के