यूँ नज़्म-ए-जहाँ दरहम-ओ-बरहम न हुआ था

यूँ नज़्म-ए-जहाँ दरहम-ओ-बरहम न हुआ था

ऐसा भी तिरे हुस्न का आलम न हुआ था

फिर छेड़ दिया वुसअत-ए-महशर की फ़ज़ा ने

सौदा तिरे वहशी का अभी कम न हुआ था

या इशरत-ए-दो-रोज़ा था या हसरत-ए-दीरोज़

वो लम्हा-ए-हस्ती जो अभी ग़म न हुआ था

सद हैफ़ वो गुल हो कफ़-ए-गुल-चीं में जो अब तक

आज़ुर्दा-ए-आवेज़िश-ए-शबनम न हुआ था

क़ातिल ही मिरा क्यूँ इसे कहता है ज़माना

माना वो शरीक-ए-सफ़-ए-मातम न हुआ था

राज़ आज मिरे दम से हुआ राज़-ए-मोहब्बत

कुछ राज़ न था जब कोई महरम न हुआ था

पाते ही ख़जिल रहम का दरिया उमड आया

पर्दा मिरी आँखों का अभी नम न हुआ था

रुस्वा न कर इस सोज़ को ऐ शम-ए-लब-ए-गोर

जो वाक़िफ़-ए-दिल-सोज़ी-ए-हमदम न हुआ था

घर ख़ैर से तक़दीर ने वीराना बनाया

सामान-ए-जुनूँ मुझ से फ़राहम न हुआ था

इक कुफ़्र सरापा ने किया हश्र का क़ाइल

मैं मो'तक़िद-ए-हश्र-ए-मुजस्सम न हुआ था

हर दिल में नई शान-ए-तजल्ली है कि 'फ़ानी'

नश्तर है वो अंदाज़ जो मरहम न हुआ था

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