फ़ारूक़ शफ़क़ कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का फ़ारूक़ शफ़क़
नाम | फ़ारूक़ शफ़क़ |
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अंग्रेज़ी नाम | Farooq Shafaq |
ज़ेहन की आवारगी को भी पनाहें चाहिए
सुना है हर घड़ी तू मुस्कुराता रहता है
शहर में जीना है चलना दो-रुख़ी तलवार पर
शहर का मंज़र हमारे घर के पस-ए-मंज़र में है
सामने झील है झील में आसमाँ
इस सियह-ख़ाने में तुझ को जागना है रात भर
होने वाला था इक हादसा रह गया
अपनी लग़्ज़िश को तो इल्ज़ाम न देगा कोई
आँधियों का ख़्वाब अधूरा रह गया
आज सोचा है जागूँगा मैं रात में
याद रखते किस तरह क़िस्से कहानी लोग थे
वो अलग चुप है ख़ुद से शर्मा कर
उजड़े नगर में शाम कभी कर लिया करें
रात काफ़ी लम्बी थी दूर तक था तन्हा मैं
फूलों को वैसे भी मुरझाना है मुरझाएँगे
पौ फटी एक ताज़ा कहानी मिली
मंज़र अजब था अश्कों को रोका नहीं गया
कोई भी शख़्स न हंगामा-ए-मकाँ में मिला
खिड़कियों पर मल्गजे साए से लहराने लगे
होने वाला था इक हादसा रह गया
घर की चीज़ों से यूँ आश्ना कौन है
दुनिया क्या है बर्फ़ की इक अलमारी है
दिन को थे हम इक तसव्वुर रात को इक ख़्वाब थे
धीरे धीरे शाम का आँखों में हर मंज़र बुझा
छाँव की शक्ल धूप की रंगत बदल गई
बहुत धोका किया ख़ुद को मगर क्या कर लिया मैं ने
अपनी पहचान कोई ज़माने में रख
आँधियों का ख़्वाब अधूरा रह गया