एक रंगीनी-ए-ज़ाहिर है गुलिस्ताँ में अगर
एक शादाबी-ए-पिन्हाँ है बयाबानों में
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जिसे लोग कहते हैं तीरगी वही शब हिजाब-ए-सहर भी है
क्या तेरे ख़याल ने भी छेड़ा है सितार
साँस लेती है वो ज़मीन 'फ़िराक़'
तुम्हें क्यूँकर बताएँ ज़िंदगी को क्या समझते हैं
कुछ न कुछ इश्क़ की तासीर का इक़रार तो है
हर नाला तिरे दर्द से अब और ही कुछ है
लुत्फ़-सामाँ इताब-ए-यार भी है
निगाह-ए-नाज़ ने पर्दे उठाए हैं क्या क्या
रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गए
ये मौत-ओ-अदम कौन-ओ-मकाँ और ही कुछ है
इस दौर में ज़िंदगी बशर की
बस्तियाँ ढूँढ रही हैं उन्हें वीरानों में