ये राज़-ओ-नियाज़ और ये समाँ ख़ल्वत का
ये आँख में आँख डाल देना तेरा
हिरनी है डरी डरी सी और कुछ मानूस
ये नर्म झिजक सुपुर्दगी की ये अदा
Wasi Shah
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Faiz Ahmad Faiz
Rahat Indori
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Gulzar
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खो दिया तुम को तो हम पूछते फिरते हैं यही
क्या जानिए मौत पहले क्या थी
लाई न ऐसों-वैसों को ख़ातिर में आज तक
मज़हब की ख़राबी है न अख़्लाक़ की पस्ती
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
वो पेंग है रूप में कि बिजली लहराए
लहू वतन के शहीदों का रंग लाया है
करते नहीं कुछ तो काम करना क्या आए
बस्तियाँ ढूँढ रही हैं उन्हें वीरानों में
आई है कुछ न पूछ क़यामत कहाँ कहाँ
इश्क़ फिर इश्क़ है जिस रूप में जिस भेस में हो