यूँ इश्क़ की आँच खा के रंग और खिले
यूँ सोज़-ए-दरूँ से रू-ए-रंगीं चमके
जैसे कुछ दिन चढ़े गुलिस्तानों में
शबनम सूखे तो गुल का चेहरा निखरे
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ज़ुल्फ़ों से फ़ज़ाओं में अदाहट का समाँ
सुन युग-ओ-युग की कहानी न उठा
अब दौर-ए-आसमाँ है न दौर-ए-हयात है
हिज्र-ओ-विसाल-ए-यार का पर्दा उठा दिया
ये शोला-ए-हुस्न जैसे बजता हो सितार
जुनून-ए-कारगर है और मैं हूँ
मज़हब की ख़राबी है न अख़्लाक़ की पस्ती
आँखों में जो बात हो गई है
महताब में सुर्ख़ अनार जैसे छूटे
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
जो रंग उड़ा वो रंग आख़िर लाया
ये नर्म नर्म हवा झिलमिला रहे हैं चराग़