आसरा जब भी कोई टूटे है
एक छाला सा दिल में फूटे है
क्या कहूँ उस के प्यार का आलम
फुलझड़ी सी बदन से छूटे है
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रह-ए-इश्क़ में ग़म-ए-ज़िंदगी की भी ज़िंदगी सफ़री रही
अब मैं हुदूद-ए-होश-ओ-ख़िरद से गुज़र गया
अहल-ए-दिल के वास्ते पैग़ाम हो कर रह गई
दिल-ए-ग़म-ज़दा पे गुज़र गया है वो हादसा कि मिरे लिए
समेट लो ज़रा आँचल कि रौशनी फैले
ऐ गर्दिशो तुम्हें ज़रा ताख़ीर हो गई
सामने आँखों के घर का घर बने और टूट जाए
नक़्श तीखे बाँकी चितवन दाँत मोती की क़तार
लम्हा लम्हा मौत को भी ज़िंदगी समझा हूँ मैं
'दाग़' के शेर जवानी में भले लगते हैं
मय-कशी का शबाब बाक़ी है
पत्थरों के देस में शीशे का है अपना वक़ार