उजले मैले पेश हुए
जैसे हम थे पेश हुए
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नाव न डूबी दरिया में
ये सहरा-ए-तलब या बेशा-ए-आशुफ़्ता-हाली है
दिल सिलसिला-ए-शौक़ की तश्हीर भी चाहे
मता-ए-इश्क़ ज़रा और सर्फ़-ए-नाज़ तो हो
दुखी दिलों में, दुखी साथियों में रहते थे
फूलों में वही तो फूल ठहरा
हाँ काहिश-ए-फ़ुज़ूल का हासिल भी कुछ नहीं
अपना दुखड़ा कहते हैं
मरहला तय कोई बे-मिन्नत-ए-जादा भी तो हो