रास आई है न आएगी ये दुनिया लेकिन
रोक रक्खा है मुझे कूच की तय्यारी ने
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मिल गई है बादिया-पैमाई से मंज़िल मिरी
इश्क़ की दस्तरस में कुछ भी नहीं
ये आब-ओ-ताब इसी मरहले पे ख़त्म नहीं
हासिल किसी से नक़्द-ए-हिमायत न कर सका
मता-ए-दीद तो क्या जानिए किस से इबारत है
चराग़-ए-ख़ाना-ए-दिल को सुपुर्द-ए-बाद कर दूँ
अभी शब है मय-ए-उल्फ़त उण्डेलें
ये सच है मिल बैठने की हद तक तो काम आई है ख़ुश-गुमानी
मेरी क़िस्मत है ये आवारा-ख़िरामी 'साजिद'
ख़ुदा-ए-बर्तर ने आसमाँ को ज़मीन पर मेहरबाँ किया है
ज़मीन मेरी रहेगी न आइना मेरा
कोई जब छीन लेता है मता-ए-सब्र मिट्टी से