ये शहर बुलंद आलम-ए-बाला से था
हम-शक्ल ग़रज़ जन्नत-ए-मा'वा से था
अब क्या है इक आबादी-ए-रेगिस्ताँ है
देहली को शरफ़ क़िला-ए-मुअल्ला से था
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ख़ुद देख ख़ुदी को ओ ख़ुद-आरा
किस वास्ते दी थीं हमें या-रब आँखें
ज़ुलेख़ा बे-ख़िरद आवारा लैला बद-मज़ा शीरीं
उस से न मिलिए जिस से मिले दिल तमाम उम्र
किस लिए दावा-ए-ज़ुलेख़ाई
हो जुदा ऐ चारा-गर है मुझ को आज़ार-ए-फ़िराक़
है बस कि जवानी में बुढ़ापे का ग़म
शहर उन के वास्ते है जो रहते हैं तुझ से दूर
जो जा के न आए फिर जवानी है ये शय
कुफ़्र और इस्लाम में देखा तो नाज़ुक फ़र्क़ था
जो कहता है वो करता है बर-अक्स उस के काम
दिल देर-गुज़ारी से है आवंद-ए-नमक