एक ज़ाती नज़्म

मैं अक्सर देखने जाता था उस को जिस की माँ मरती

और अपने दिल में कहता था ये कैसा शख़्स? है अब भी

जिए जाता है आख़िर कौन उस के घर में है जिस के

लिए ये सख़्तियाँ सहता है तकलीफ़ें उठाता है

थकन दिन की समेटे शब को घर जाने पे कौन उस के

लिए दहलीज़ पर बैठा... दुआ की मिशअलें दिल में

जलाए... दीदा-ए-बे-ख़्वाब की हर राह दरवाज़े

की दर्ज़ों से निकालेगा... ख़ुदा की मेहरबानी इक

हक़ीक़त ही सही कुछ क़हर-आलूदा भी है... जो उस

की ना-फ़रमाइयों करते हैं उन के वास्ते उस ने

दहकती आग भी तय्यार रक्खी है... दिल-ए-काफ़िर

में उस की मेहरबानी और रहमत का तसव्वुर भी

जब आया मामता के लफ़्ज़ की सूरत में आया है

मिरी वीरान आँखों ने फिर ऐसा वक़्त भी देखा

कि सूरज जल रहा था रौशनी मंज़र से ग़ाएब थी

ख़ुदा ज़िंदा था लेकिन उस की रहमत सर से ग़ाएब थी

उन्ही आँखों में मेरे ख़ैरियत से लौट आने पर

न था अश्क-ए-मसर्रत भी... कि मेरी राह तकना जिन

की बीनाई का मसरफ़ था... वो लब दो चार दिन पहले

मिरे माथे पे हो कर सब्त जो कहते थे'' तुम जाओ

तुम्हारी नौकरी की बात है बेटे! मैं अच्छी हूँ

मुझे अब जान का ख़तरा नहीं है और अगर कुछ हो

गया तो हम तुम्हें फ़ौरन बुला लेंगे चले जाओ''

(अगर मर जाऊँ मैं तो सब्र कर लेना... ख़ुदा-हाफ़िज़)

मगर ये बात 'क़ासिर' इन लबों से कब सुनी मैं ने

इसे मालूम था शायद कि माएँ मर नहीं सकतीं

दिल-ए-औलाद में इक याद बन कर ज़िंदा रहती हैं

बुलाया तो गया मुझ को मगर वो लब? कहाँ वो लब?

मिरे फ़ाक़ा-ज़दा बचपन को नींदों से गुरेज़ाँ, पा

के जो परियों के अफ़्साने सुनाते थे तो मैं ख़्वाबों

में ख़ुद को उन के दस्तर-ख़्वानों पर मौजूद पाता था

सकत बाक़ी नहीं है उन लबों में आज इतनी भी

कि मेरी ख़ातिर इक हर्फ़-ए-दुआ का बोझ उठा लेते

मुझे जो देखने आते हैं कहते हैं मैं ज़िंदा हूँ

मैं खाता हूँ कि ये भी ज़िंदगी की इक ज़रूरत है

मगर हर ज़ाइक़े में एक तल्ख़ी का इज़ाफ़ा है

किसी दीवार का साया हो या हो पेड़ की छाँव

मिरा जिस्म-ए-बरहना छेदती रहती हैं किरनें अब

हुआ वो हाथ ग़ाएब जो कि मेरी ज़ात पर होते

हुए हर वार को बढ़ बढ़ के ख़ुद पर रोक लेता था

दुआ को हाथ उठाता हूँ दुआएँ उस की ख़ातिर हैं

मैं गोया हूँ कि मेरी सब सदाएँ उस की ख़ातिर हैं

मोहब्बत उस की ख़ातिर है वफ़ाएँ उस की ख़ातिर हैं

कि मेरी इब्तिदाएँ, इंतिहाएँ उस की ख़ातिर हैं

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