जहाँ आसाँ था दिन को रात करना
वो गलियाँ हो गई हैं एक सपना
अब उन की याद है पलकों पे रौशन
अब उन को कह नहीं सकते हम अपना
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अहद-ए-सज़ा
कराहते हुए इंसान की सदा हम हैं
कितना सुकूत है रसन-ओ-दार की तरफ़
हम ने दिल से तुझे सदा माना
तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था
गुलशन की फ़ज़ा धुआँ धुआँ है
सो गए अंजुम-ए-शब याद न आ
दस्तूर
ज़ाबता
हर-गाम पर थे शम्स-ओ-क़मर उस दयार में
घर के ज़िंदाँ से उसे फ़ुर्सत मिले तो आए भी
तू रंग है ग़ुबार हैं तेरी गली के लोग