मिरी निगाह से वो देखते रहे हैं मुझे
रहा हूँ मैं भी कभी उस निगाह का मेआ'र
यहाँ न तल्ख़-नवाई से काम लो 'जालिब'
रहीन-ए-दर्द नहीं हैं बस्तियाँ ये दयार
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मेरी बच्ची
कम पुराना बहुत नया था फ़िराक़
जब कोई कली सेहन-ए-गुलिस्ताँ में खिली है
दयार-ए-'दाग़'-ओ-'बेख़ुद' शहर-ए-देहली छोड़ कर तुझ को
'फ़ैज़' और 'फ़ैज़' का ग़म भूलने वाला है कहीं
मुशीर
तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था
शे'र होता है अब महीनों में
तू रंग है ग़ुबार हैं तेरी गली के लोग
झूटी ख़बरें घड़ने वाले झूटे शे'र सुनाने वाले
उस सितमगर की हक़ीक़त हम पे ज़ाहिर हो गई
ये सोच कर न माइल-ए-फ़रियाद हम हुए