उठने को तो उठा हूँ महफ़िल से तिरी लेकिन
अब दिल को ये धड़का है जाऊँ तो किधर जाऊँ
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अश्क-ए-ग़म उक़्दा-कुशा-ए-ख़लिश-ए-जाँ निकला
दर्द सा उठ के न रह जाए कहीं दिल के क़रीब
तू है बहार तो दामन मिरा हो क्यूँ ख़ाली
निज़ाम-ए-तबीअत से घबरा गया दिल
ग़म-ए-दिल अब किसी के बस का नहीं
देख कर शम्अ के आग़ोश में परवाने को
तुम अज़ीज़ और तुम्हारा ग़म भी अज़ीज़
उस ने इस अंदाज़ से देखा मुझे
मिरा वजूद हक़ीक़त मिरा अदम धोका
वो पूछते हैं दिल-ए-मुब्तला का हाल और हम
हर मुसीबत थी मुझे ताज़ा पयाम-ए-आफ़ियत