ज़िंदगी और मिले और मिले और मिले
शर्त ये है कि पुराना वही लाहौर मिले
दौर है ताज़ा हिमाक़त का वफ़ा को मतलूब
है कोई दोस्त जो आ कर मुझे फ़ील-फ़ौर मिले
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दिल को ख़ुदा की याद तले भी दबा चुका
मेरी क़िस्मत के नविश्ते को मिटा दे कोई
ऐ मिरी जान अपने जी के सिवा
दूर से आँखें दिखाती है नई दुनिया मुझे
मेरी शाएरी
ये और दौर है अब और कुछ न फ़रमाए
कृष्ण कन्हैया
किसी के रू-ब-रू बैठा रहा मैं बे-ज़बाँ हो कर
अगर मौज है बीच धारे चला चल
पार उतरा हूँ किस क़रीने से
ये क्या मक़ाम है वो नज़ारे कहाँ गए
अब ख़ूब हँसेगा दीवाना