बे-गिनती बोसे लेंगे रुख़-ए-दिल-पसंद के
आशिक़ तिरे पढ़े नहीं इल्म-ए-हिसाब को
Mohsin Naqvi
Jaun Eliya
Faiz Ahmad Faiz
Gulzar
Allama Iqbal
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Habib Jalib
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बुलबुल गुलों से देख के तुझ को बिगड़ गया
मर्द-ए-दरवेश हूँ तकिया है तवक्कुल मेरा
आइना-ख़ाना करेंगे दिल-ए-नाकाम को हम
दुनिया ओ आख़िरत में तलबगार हैं तिरे
उठ गई हैं सामने से कैसी कैसी सूरतें
सिवाए रंज कुछ हासिल नहीं है इस ख़राबे में
तब्ल-ओ-अलम ही पास हैं अपने न मुल्क-ओ-माल
आप की नाज़ुक कमर पर बोझ पड़ता है बहुत
शब-ए-फ़ुर्क़त में यार-ए-जानी की
मसनद-ए-शाही की हसरत हम फ़क़ीरों को नहीं
हुस्न-ए-परी इक जल्वा-ए-मस्ताना है उस का
ख़ार मतलूब जो होवे तो गुलिस्ताँ माँगूँ