मिरी दास्ताँ भी अजीब है वो क़दम क़दम मिरे साथ था
जिसे राज़-ए-दिल न बता सका जिसे दाग़-ए-दिल न दिखा सका
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जब वक़्त पड़ा था तो जो कुछ हम ने किया था
उस अजनबी से वास्ता ज़रूर था कोई
ये विसाल ओ हिज्र का मसअला तो मिरी समझ में न आ सका
कभी तो सेहन-ए-अना से निकले कहीं पे दश्त-ए-मलाल आया
आँसू तो कोई आँख में लाया नहीं हूँ मैं
आज फिर दब गईं दर्द की सिसकियाँ
रास्ता देर तक सोचता रह गया
हम ख़ुद भी हुए नादिम जब हर्फ़-ए-दुआ निकला
जाम-ए-इश्क़ पी चुके ज़िंदगी भी जी चुके
वही हुआ कि ख़ुद भी जिस का ख़ौफ़ था मुझे
इस अक़्ल की मारी नगरी में कभी पानी आग नहीं बनता