कभी कभी तो जुदा बे-सबब भी होते हैं
सदा ज़माने की तक़्सीर थोड़ी होती है
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गुज़र जाएगी सारी रात इस में
जहाँ इक शख़्स भी मिलता नहीं है चाहने से
वो और थे कि जो ना-ख़ुश थे दो जहाँ ले कर
मिरे दिल के अकेले घर में 'राहत'
तअल्लुक़ की नई इक रस्म अब ईजाद करना है
किसी भी राएगानी से बड़ा है
उसे भी ज़िंदगी करनी पड़ेगी 'मीर' जैसी
बहुत ताख़ीर से पाया है ख़ुद को
हुज़ूर आप कोई फ़ैसला करें तो सही
फ़साना अब कोई अंजाम पाना चाहता है
मिसाल-ए-ख़ाक कहीं पर बिखर के देखते हैं