वो यूँ सुबूत-ए-उरूज-ओ-ज़वाल देता था
उठा के हाथ में पत्थर उछाल देता था
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जब आ जाती है दुनिया घूम फिर कर अपने मरकज़ पर
ऐ मौसम-ए-जुनूँ ये अजब तर्ज़-ए-क़त्ल है
हवादिसात ज़रूरी हैं ज़िंदगी के लिए
क्यूँ पशेमाँ हो अगर वअ'दा वफ़ा हो न सका
अपनी ग़ुर्बत की कहानी हम सुनाएँ किस तरह
ज़िंदगी कम पढ़े परदेसी का ख़त है 'इबरत'
ये तकल्लुफ़ ये मुदारात समझ में आए
अपने एहसानों का नीला साएबाँ रहने दिया
ज़मीं के जिस्म को टुकड़ों में बाँटने वालो
सुना है डूब गई बे-हिसी के दरिया में