ज़मीं के जिस्म को टुकड़ों में बाँटने वालो
कभी ये ग़ौर करो काएनात किस की है
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हवादिसात ज़रूरी हैं ज़िंदगी के लिए
क्यूँ पशेमाँ हो अगर वअ'दा वफ़ा हो न सका
अपनी ग़ुर्बत की कहानी हम सुनाएँ किस तरह
जब आ जाती है दुनिया घूम फिर कर अपने मरकज़ पर
अपने एहसानों का नीला साएबाँ रहने दिया
ऐ मौसम-ए-जुनूँ ये अजब तर्ज़-ए-क़त्ल है
वो यूँ सुबूत-ए-उरूज-ओ-ज़वाल देता था
सुना है डूब गई बे-हिसी के दरिया में
ये तकल्लुफ़ ये मुदारात समझ में आए
ज़िंदगी कम पढ़े परदेसी का ख़त है 'इबरत'