कब ग़ैर हुआ महव तिरी जल्वागरी का
कब ग़ैर हुआ महव तिरी जल्वागरी का
तू पूछ मिरे दिल से मज़ा बे-ख़बरी का
सौदा जो गुल-ओ-लाला को है जेब-दरी का
अदना ये शगूफ़ा है नसीम-ए-सहरी का
किस ने लब-ए-बाम आ के दिखाया रुख़-ए-रौशन
ख़ुर्शीद में है रंग चराग़-ए-सहरी का
अपनी ये ग़ज़ल है कि परिस्तान-ए-सुख़न है
पर्वाज़-ए-मज़ामीं में है अंदाज़ परी का
कुछ कम नहीं नाज़ुक मिरे मज़मून-ए-कमर से
शोहरा है बजा यार की नाज़ुक-कमरी का
इक रात भी ऐ माह न जागी मिरी क़िस्मत
सुनता था बहुत शोर दुआ-ए-सहरी का
जिस ने मुझे आगाह किया हाल-ए-जहाँ से
क्या लुत्फ़ जमादात को है बे-ख़बरी का
ग़ुर्बत में मिला लुत्फ़ कहीं बढ़ के वतन से
हासिल जो हुआ तुझ से मज़ा हम-सफ़री का
उस माह की महफ़िल में जो है क़हक़हा-ज़न आज
होता है बत-ए-मय पे गुमाँ कब्क-ए-दरी का
क़ुरआन कहे देता है कि हम हक़ की ज़बाँ हैं
होता है जुदा तौर कलाम-ए-बशरी का
आदम की तो माँ भी न थी ऐ मुंकिर-ए-एजाज़
ईसा को मिला सिर्फ़ शरफ़ बे-पिदरी का
सर्व-ए-क़द-ए-दिलबर की जो तस्वीर है दिल पर
हम-संग नहीं लाल-ए-अक़ीक़-ए-शजरी का
आँखें हैं हसीनों की तिरे सब्ज़ा-ए-रुख़ पर
क्यूँकि न हो मैलान ग़ज़ालों को चरी का
चल तू भी 'असर' ले के मता-ए-दिल-ए-बेताब
वो देखने जाते हैं तमाशा गुज़री का
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