दिल से क्या पूछता है ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर से पूछ
अपने दीवाने का अहवाल तू ज़ंजीर से पूछ
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कैसा आना कैसा जाना मेरे घर क्या आओगे
ग़म नहीं मुझ को जो वक़्त-ए-इम्तिहाँ मारा गया
अपने दर से जो उठाते हैं हमें
रोते हैं सुन के कहानी मेरी
बनाते हैं हज़ारों ज़ख़्म-ए-ख़ंदाँ ख़ंजर-ए-ग़म से
साथ दुनिया का नहीं तालिब-ए-दुनिया देते
शैख़ के हाल पर तअस्सुफ़ है
तेरी जानिब से मुझ पे क्या न हुआ
पा रहा है दिल मुसीबत के मज़े
महफ़िल में उस पे रात जो तू मेहरबाँ न था
गुलशन में कौन बुलबुल-ए-नालाँ को दे पनाह