गुलशन में कौन बुलबुल-ए-नालाँ को दे पनाह
गुलचीं ओ बाग़बाँ भी हैं सय्याद की तरफ़
Gulzar
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कुछ समझ कर उस मह-ए-ख़ूबी से की थी दोस्ती
ज़बान-ए-हाल से हम शिकवा-ए-बेदाद करते हैं
तुम्हारे आशिक़ों में बे-क़रारी क्या ही फैली है
उल्टी क्यूँ पड़ती है तदबीर ये हम क्या जानें
आइना देख के फ़रमाते हैं
पा रहा है दिल मुसीबत के मज़े
ग़म नहीं मुझ को जो वक़्त-ए-इम्तिहाँ मारा गया
अपनी जाँ-बाज़ी का जिस दम इम्तिहाँ हो जाएगा
महफ़िल में उस पे रात जो तू मेहरबाँ न था
तड़प तड़प के तमन्ना में करवटें बदलीं
इबादत ख़ुदा की ब-उम्मीद-ए-हूर
जफ़ाएँ होती हैं घुटता है दम ऐसा भी होता है