जिस ने यारो मुझ से दावा शेर के फ़न का किया
मैं ने ले कर उस के काग़ज़ और क़लम आगे धरा
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या वस्ल में रखिए मुझे या अपनी हवस में
सुब्ह-दम मुझ से लिपट कर वो नशे में बोले
टुक आँख मिलाते ही किया काम हमारा
हर तरफ़ हैं तिरे दीदार के भूके लाखों
गली से तेरी जो टुक हो के आदमी निकले
चाहता हूँ तुझे नबी की क़सम
नज़ाकत उस गुल-ए-राना की देखियो 'इंशा'
साँवले तन पे ग़ज़ब धज है बसंती शाल की
बंदगी हम ने तो जी से अपनी ठानी आप की
टुक इक ऐ नसीम सँभाल ले कि बहार मस्त-ए-शराब है
है जिस में क़ुफ़्ल-ए-ख़ाना-ए-ख़ुम्मार तोड़िए
काश अब्र करे चादर-ए-महताब की चोरी