ये अजीब माजरा है कि ब-रोज़-ए-ईद-ए-क़ुर्बां
वही ज़ब्ह भी करे है वही ले सवाब उल्टा
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लो फ़क़ीरों की दुआ हर तरह आबाद रहो
गाहे गाहे जो इधर आप करम करते हैं
याँ ज़ख़्मी-ए-निगाह के जीने पे हर्फ़ है
है ख़ाल यूँ तुम्हारे चाह-ए-ज़क़न के अंदर
काटे हैं हम ने यूँही अय्याम ज़िंदगी के
दहकी है आग दिल में पड़े इश्तियाक़ की
न कह तू शैख़ मुझे ज़ोहद सीख मस्ती छोड़
तोडूँगा ख़ुम-ए-बादा-ए-अंगूर की गर्दन
ख़ूबान-ए-रोज़गार मुक़ल्लिद तेरी हैं सब
ये नहीं बर्क़ इक फ़रंगी है
बंक की जल्वा-गरी पर ग़श हूँ