बगूला बन के समुंदर में ख़ाक उड़ाना थी
कि लहर लहर मुझे तुंद-ख़ू भी होना था
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वो दोस्त था तो उसी को अदू भी होना था
सूरज हूँ ज़िंदगी की रमक़ छोड़ जाऊँगा
उस आइने में देखना हैरत भी आएगी
मुझ पे पत्थर फेंकने वालों को तेरे शहर में
उस ने भी कई रोज़ से ख़्वाहिश नहीं ओढ़ी
'साजिद' तू फिर से ख़ाना-ए-दिल में तलाश कर
साए की तरह बढ़ न कभी क़द से ज़ियादा
मिला तो हादिसा कुछ ऐसा दिल ख़राश हुआ
मैं आईना बनूँगा तू पत्थर उठाएगा
पिछले बरस भी बोई थीं लफ़्ज़ों की खेतियाँ
मिरे घर से ज़ियादा दूर सहरा भी नहीं लेकिन
प्यासे के पास रात समुंदर पड़ा हुआ