दरवेश नज़र आता था हर हाल में लेकिन
'साजिद' ने लिबास इतना भी सादा नहीं पहना
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ख़ुश्क उस की ज़ात का सातों समुंदर हो गया
बढ़ गया है इस क़दर अब सुर्ख़-रू होने का शौक़
वो बोलता था मगर लब नहीं हिलाता था
एक भी ख़्वाहिश के हाथों में न मेहंदी लग सकी
तुम मुझे भी काँच की पोशाक पहनाने लगे
प्यासे के पास रात समुंदर पड़ा हुआ
उस आइने में देखना हैरत भी आएगी
गड़े मर्दों ने अक्सर ज़िंदा लोगों की क़यादत की
दहर के अंधे कुएँ में कस के आवाज़ा लगा
फ़िक्र-ए-मेआर-ए-सुख़न बाइस-ए-आज़ार हुई
वो दोस्त था तो उसी को अदू भी होना था