होते ही शाम जलने लगा याद का अलाव
आँसू सुनाने दुख की कहानी निकल पड़े
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दुनिया ने ज़र के वास्ते क्या कुछ नहीं किया
ख़ुश्क उस की ज़ात का सातों समुंदर हो गया
वो मुसलसल चुप है तेरे सामने तन्हाई में
रुख़-ए-रौशन का रौशन एक पहलू भी नहीं निकला
मोम की सीढ़ी पे चढ़ कर छू रहे थे आफ़्ताब
सूरज हूँ ज़िंदगी की रमक़ छोड़ जाऊँगा
सरसब्ज़ दिल की कोई भी ख़्वाहिश नहीं हुई
मैं तिरे दर का भिकारी तू मिरे दर का फ़क़ीर
तुम मुझे भी काँच की पोशाक पहनाने लगे
बे-ख़बर दुनिया को रहने दो ख़बर करते हो क्यूँ
मुसलसल जागने के बाद ख़्वाहिश रूठ जाती है
पिछले बरस भी बोई थीं लफ़्ज़ों की खेतियाँ