मिले मुझे भी अगर कोई शाम फ़ुर्सत की
मैं क्या हूँ कौन हूँ सोचूँगा अपने बारे में
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इक तबीअत थी सो वो भी ला-उबाली हो गई
दुनिया ने ज़र के वास्ते क्या कुछ नहीं किया
ख़ुदा ने जिस को चाहा उस ने बच्चे की तरह ज़िद की
मोम की सीढ़ी पे चढ़ कर छू रहे थे आफ़्ताब
उस ने भी कई रोज़ से ख़्वाहिश नहीं ओढ़ी
एक भी ख़्वाहिश के हाथों में न मेहंदी लग सकी
अजब सदा ये नुमाइश में कल सुनाई दी
वो दोस्त था तो उसी को अदू भी होना था
पढ़ते पढ़ते थक गए सब लोग तहरीरें मिरी
मिला तो हादिसा कुछ ऐसा दिल ख़राश हुआ
पिछले बरस भी बोई थीं लफ़्ज़ों की खेतियाँ
ग़ार से संग हटाया तो वो ख़ाली निकला