मोम की सीढ़ी पे चढ़ कर छू रहे थे आफ़्ताब
फूल से चेहरों को ये कोशिश बहुत महँगी पड़ी
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'साजिद' तू फिर से ख़ाना-ए-दिल में तलाश कर
रुख़-ए-रौशन का रौशन एक पहलू भी नहीं निकला
ये तिरे अशआर तेरी मानवी औलाद हैं
मिले मुझे भी अगर कोई शाम फ़ुर्सत की
मारा किसी ने संग तो ठोकर लगी मुझे
पढ़ते पढ़ते थक गए सब लोग तहरीरें मिरी
मैं तिरे दर का भिकारी तू मिरे दर का फ़क़ीर
पता कैसे चले दुनिया को क़स्र-ए-दिल के जलने का
अजब सदा ये नुमाइश में कल सुनाई दी
सूरज हूँ ज़िंदगी की रमक़ छोड़ जाऊँगा
ख़ुश्क उस की ज़ात का सातों समुंदर हो गया