पिछले बरस भी बोई थीं लफ़्ज़ों की खेतियाँ
अब के बरस भी इस के सिवा कुछ नहीं किया
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रोए हुए भी उन को कई साल हो गए
फेंक यूँ पत्थर कि सत्ह-ए-आब भी बोझल न हो
ग़ार से संग हटाया तो वो ख़ाली निकला
सज़ा तो मिलना थी मुझ को बरहना लफ़्ज़ों की
ख़ौफ़ दिल में न तिरे दर के गदा ने रक्खा
मैं ख़ून बहा कर भी हुआ बाग़ में रुस्वा
मिला तो हादिसा कुछ ऐसा दिल ख़राश हुआ
ये तिरे अशआर तेरी मानवी औलाद हैं
वो दोस्त था तो उसी को अदू भी होना था
मिरे ही हर्फ़ दिखाते थे मेरी शक्ल मुझे
उस ने भी कई रोज़ से ख़्वाहिश नहीं ओढ़ी