'साजिद' तू फिर से ख़ाना-ए-दिल में तलाश कर
मुमकिन है कोई याद पुरानी निकल पड़े
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एक भी ख़्वाहिश के हाथों में न मेहंदी लग सकी
मैं ख़ून बहा कर भी हुआ बाग़ में रुस्वा
मुझ पे पत्थर फेंकने वालों को तेरे शहर में
फ़िक्र-ए-मेआर-ए-सुख़न बाइस-ए-आज़ार हुई
वो चाँद है तो अक्स भी पानी में आएगा
प्यासे के पास रात समुंदर पड़ा हुआ
पिछले बरस भी बोई थीं लफ़्ज़ों की खेतियाँ
मिरे ही हर्फ़ दिखाते थे मेरी शक्ल मुझे
संग-दिल हूँ इस क़दर आँखें भिगो सकता नहीं
बढ़ गया है इस क़दर अब सुर्ख़-रू होने का शौक़
दरवेश नज़र आता था हर हाल में लेकिन
अजब सदा ये नुमाइश में कल सुनाई दी