ख़ाकिस्तर-ए-दिल में तो न था एक शरर भी
बेकार उसे बर्बाद किया मौज-ए-सबा ने
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अब दिल को हम ने बंदा-ए-जानाँ बना दिया
वो शबनम का सुकूँ हो या कि परवाने की बेताबी
ये इत्र बे-ज़ियाँ नहीं नसीम-ए-नौ-बहार की
सदा फ़रियाद की आए कहीं से
हुस्न-ए-फ़ितरत की आबरू मुझ से
जो तसव्वुर से मावरा न हुआ
पैग़ाम-ए-रिहाई दिया हर चंद क़ज़ा ने
आशोब-ए-इज़्तिराब में खटका जो है तो ये
ज़बानों पर नहीं अब तूर का फ़साना बरसों से
अंजाम-ए-वफ़ा भी देख लिया अब किस लिए सर ख़म होता है
कहाँ ताक़त ये रूसी को कहाँ हिम्मत ये जर्मन को
न रहा कोई तार दामन में