कुछ ऐसा है फ़रेब-ए-नर्गिस-ए-मस्ताना बरसों से
कि सब भूले हुए हैं काबा ओ बुत-ख़ाना बरसों से
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जो तसव्वुर से मावरा न हुआ
हुस्न-ए-फ़ितरत की आबरू मुझ से
ज़िंदाँ-नसीब हूँ मिरे क़ाबू में सर नहीं
अब दिल को हम ने बंदा-ए-जानाँ बना दिया
उफ़ क्या मज़ा मिला सितम-ए-रोज़गार में
पैग़ाम-ए-रिहाई दिया हर चंद क़ज़ा ने
वो शबनम का सुकूँ हो या कि परवाने की बेताबी
अंजाम-ए-वफ़ा भी देख लिया अब किस लिए सर ख़म होता है
न रहा कोई तार दामन में
कहाँ ताक़त ये रूसी को कहाँ हिम्मत ये जर्मन को