यूँ दिल की फ़ज़ा में खेलते हैं
दूर वादी में ये नदी 'अख़्तर'
अब्र में छुप गया है आधा चाँद
आ कि इन बद-गुमानियों की क़सम
चंद लम्हों को तेरे आने से
आज मुद्दत के ब'अद होंटों पर
दोस्त! तुझ से अगर ख़फ़ा हूँ तो क्या
याद-ए-माज़ी में यूँ ख़याल तिरा
यूँ ही बदला हुआ सा इक अंदाज़
इक ज़रा रसमसा के सोते में
कर चुकी है मिरी मोहब्बत क्या
कितनी मासूम हैं तिरी आँखें