यूँ ही बदला हुआ सा इक अंदाज़
हाए ये तेरे हिज्र का आलम
आज मुद्दत के ब'अद होंटों पर
दोस्त! तुझ से अगर ख़फ़ा हूँ तो क्या
हुस्न का इत्र जिस्म का संदल
दोस्त! क्या हुस्न के मुक़ाबिल में
चंद लम्हों को तेरे आने से
अब्र में छुप गया है आधा चाँद
अपने आईना-ए-तमन्ना में
दूर वादी में ये नदी 'अख़्तर'
यूँ दिल की फ़ज़ा में खेलते हैं
इक ज़रा रसमसा के सोते में