आज मुद्दत के ब'अद होंटों पर
एक मुबहम सा गीत आया है
इस को नग़्मा तो कह नहीं सकता
ये तो नग़्मे का एक साया है
Allama Iqbal
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हुस्न का इत्र जिस्म का संदल
कितनी मासूम हैं तिरी आँखें
दूर वादी में ये नदी 'अख़्तर'
इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
एक कम-सिन हसीन लड़की का
किस को मालूम था कि अहद-ए-वफ़ा
कर चुकी है मिरी मोहब्बत क्या
अब्र में छुप गया है आधा चाँद
हाए ये तेरे हिज्र का आलम
इस हसीं जाम में हैं ग़ल्तीदा
याद-ए-माज़ी में यूँ ख़याल तिरा
ना-मुरादी के ब'अद बे-तलबी