ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
पास रह कर जुदाई की तुझ से
वो कसी दिन न आ सके पर उसे
उस के और अपने दरमियान में अब
मैं ने हर बार तुझ से मिलते वक़्त
कौन सूद-ओ-ज़ियाँ की दुनिया में
मिरी जब भी नज़र पड़ती है तुझ पर
मेरी अक़्ल-ओ-होश की सब हालतें
है मोहब्बत हयात की लज़्ज़त
चारा-गर भी जो यूँ गुज़र जाएँ
चाँद की पिघली हुई चाँदी में
जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है