ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं
उस के और अपने दरमियान में अब
मेरी अक़्ल-ओ-होश की सब हालतें
मिरी जब भी नज़र पड़ती है तुझ पर
जो हक़ीक़त है उस हक़ीक़त से
चारा-गर भी जो यूँ गुज़र जाएँ
वो कसी दिन न आ सके पर उसे
मैं ने हर बार तुझ से मिलते वक़्त
इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद
पसीने से मिरे अब तो ये रुमाल
हर तंज़ किया जाए हर इक तअना दिया जाए