शर्म दहशत झिझक परेशानी
ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
उस के और अपने दरमियान में अब
है मोहब्बत हयात की लज़्ज़त
वो कसी दिन न आ सके पर उसे
साल-हा-साल और इक लम्हा
कौन सूद-ओ-ज़ियाँ की दुनिया में
पास रह कर जुदाई की तुझ से
थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उस का ये था
मिरी जब भी नज़र पड़ती है तुझ पर
पसीने से मिरे अब तो ये रुमाल
हर तंज़ किया जाए हर इक तअना दिया जाए