मेरी अक़्ल-ओ-होश की सब हालतें
कौन सूद-ओ-ज़ियाँ की दुनिया में
वो कसी दिन न आ सके पर उसे
मैं ने हर बार तुझ से मिलते वक़्त
जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है
इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद
जो हक़ीक़त है उस हक़ीक़त से
पसीने से मिरे अब तो ये रुमाल
थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उस का ये था
सर में तकमील का था इक सौदा
चारासाज़ों की चारा-साज़ी से
साल-हा-साल और इक लम्हा