पास रह कर जुदाई की तुझ से
चाँद की पिघली हुई चाँदी में
जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है
सर में तकमील का था इक सौदा
क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं
थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उस का ये था
ये तेरे ख़त तिरी ख़ुशबू ये तेरे ख़्वाब-ओ-ख़याल
ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
मेरी अक़्ल-ओ-होश की सब हालतें
मिरी जब भी नज़र पड़ती है तुझ पर
वो कसी दिन न आ सके पर उसे
इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद