चाँद की पिघली हुई चाँदी में
थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उस का ये था
मैं ने हर बार तुझ से मिलते वक़्त
जो हक़ीक़त है उस हक़ीक़त से
मेरी अक़्ल-ओ-होश की सब हालतें
इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद
ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
पसीने से मिरे अब तो ये रुमाल
उस के और अपने दरमियान में अब
पास रह कर जुदाई की तुझ से
है मोहब्बत हयात की लज़्ज़त
जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है