सर में तकमील का था इक सौदा
मैं ने हर बार तुझ से मिलते वक़्त
हर तंज़ किया जाए हर इक तअना दिया जाए
मेरी अक़्ल-ओ-होश की सब हालतें
थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उस का ये था
इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद
उस के और अपने दरमियान में अब
जो हक़ीक़त है उस हक़ीक़त से
कौन सूद-ओ-ज़ियाँ की दुनिया में
वो कसी दिन न आ सके पर उसे
ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
चारा-गर भी जो यूँ गुज़र जाएँ