शर्म दहशत झिझक परेशानी
ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
पसीने से मिरे अब तो ये रुमाल
साल-हा-साल और इक लम्हा
चारासाज़ों की चारा-साज़ी से
मेरी अक़्ल-ओ-होश की सब हालतें
क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं
चाँद की पिघली हुई चाँदी में
मिरी जब भी नज़र पड़ती है तुझ पर
चारा-गर भी जो यूँ गुज़र जाएँ
हर तंज़ किया जाए हर इक तअना दिया जाए
वो कसी दिन न आ सके पर उसे