है मोहब्बत हयात की लज़्ज़त
वर्ना कुछ लज़्ज़त-ए-हयात नहीं
क्या इजाज़त है एक बात कहूँ
वो मगर ख़ैर कोई बात नहीं
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शर्म दहशत झिझक परेशानी
सर में तकमील का था इक सौदा
इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद
ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
मिरी जब भी नज़र पड़ती है तुझ पर
जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है
मैं ने हर बार तुझ से मिलते वक़्त
चारा-गर भी जो यूँ गुज़र जाएँ
उस के और अपने दरमियान में अब
क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं
वो कसी दिन न आ सके पर उसे