क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं
कर्ब ख़ुद अपनी बेवफ़ाई का
क्या मैं इस को तिरी तलाश कहूँ?
दिल में इक शौक़ है जुदाई का
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जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है
शर्म दहशत झिझक परेशानी
चाँद की पिघली हुई चाँदी में
कौन सूद-ओ-ज़ियाँ की दुनिया में
इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद
सर में तकमील का था इक सौदा
साल-हा-साल और इक लम्हा
चारा-गर भी जो यूँ गुज़र जाएँ
थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उस का ये था
पास रह कर जुदाई की तुझ से
मेरी अक़्ल-ओ-होश की सब हालतें