सर में तकमील का था इक सौदा
ज़ात में अपनी था अधूरा मैं
क्या कहूँ तुम से कितना नादिम हूँ
तुम से मिल कर हुआ न पूरा मैं
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कौन सूद-ओ-ज़ियाँ की दुनिया में
मैं ने हर बार तुझ से मिलते वक़्त
मिरी जब भी नज़र पड़ती है तुझ पर
वो कसी दिन न आ सके पर उसे
थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उस का ये था
जो हक़ीक़त है उस हक़ीक़त से
ये तेरे ख़त तिरी ख़ुशबू ये तेरे ख़्वाब-ओ-ख़याल
शर्म दहशत झिझक परेशानी
पास रह कर जुदाई की तुझ से
साल-हा-साल और इक लम्हा
उस के और अपने दरमियान में अब
क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं