थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उस का ये था
पहले इक साया सा निकल के घर से बाहर आता है
इस के ब'अद कई साए से उस को रुख़्सत करते हैं
फिर दीवारें ढे जाती हैं दरवाज़ा गिर जाता है
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मैं ने हर बार तुझ से मिलते वक़्त
है मोहब्बत हयात की लज़्ज़त
मिरी जब भी नज़र पड़ती है तुझ पर
सर में तकमील का था इक सौदा
चारासाज़ों की चारा-साज़ी से
पास रह कर जुदाई की तुझ से
क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं
जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है
पसीने से मिरे अब तो ये रुमाल
ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
जो हक़ीक़त है उस हक़ीक़त से
हर तंज़ किया जाए हर इक तअना दिया जाए