ये तेरे ख़त तिरी ख़ुशबू ये तेरे ख़्वाब-ओ-ख़याल
मता-ए-जाँ हैं तिरे क़ौल और क़सम की तरह
गुज़शता साल इन्हें मैं ने गिन के रक्खा था
किसी ग़रीब की जोड़ी हुई रक़म की तरह
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पास रह कर जुदाई की तुझ से
मिरी जब भी नज़र पड़ती है तुझ पर
क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं
हर तंज़ किया जाए हर इक तअना दिया जाए
मेरी अक़्ल-ओ-होश की सब हालतें
जो हक़ीक़त है उस हक़ीक़त से
कौन सूद-ओ-ज़ियाँ की दुनिया में
चारा-गर भी जो यूँ गुज़र जाएँ
ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद
सर में तकमील का था इक सौदा